Thursday, March 22, 2018

उन्मुक्त तन्त्र

उन्मुक्त-तन्त्र
************
उन्मुक्त हुई, कविता वनिता
खोकर शृंखलता,संयमिता।
मदिरा से कर, मन विह्वल
देखे जिसने, वे नयन तरल।
रंजित अधरों में, हास लास्य
अंतर सुवास,रसच्युत श्वास।
दुग्धित संचित,अंतः लज्जित
प्रिय संस्पर्शन से रोमांचित।
दिल में नकभी होता विभाग
पाकर नूतन ,जीवन पराग।
स्वच्छन्द बनी ,अब छोड़ राग
खुद अपनाया ,जीवन विराग।
उन्मुक्त तन्त्र का यह विलास
देखा विनाश में ही विकास।
अवरोध हीन आमरण बिना
अपजात गात्र सरसे कितना।
कहां? सुलभ वह मादकता
केवल यह उच्छलन भावुकता।
उन्छित संयम, में ही उपचय
कैसा? यह जीवन अप संसय!
सुंदरता, का होता अपचय
उपयुक्त नहीं जिसका संश्रय।
✍भागवत पाठक"श्यामल"


No comments:

Post a Comment