साम्प्रदायिक एकता की तपोभूमि
(आज की संकीर्ण मनोवृति पर मूक अट्टहास)
उत्तरी छोटानागपुर के गिरिडीह जिले एक छोटा सा क़स्बाईनुमा इलाका है खरगडीहा जो उसरी नदी के तट पर बसा हुआ है. वर्षों पूर्व यहाँ एक संत रहते थे मस्तमौला ,सांसारिक प्रपंचो से लापरहवाह। हृष्ट-पुष्ट दिव्य दृढ एवं अमिन सभ्यता की प्रशान्त तेजस्विता से मंडित। बारहो महीने कमर में एक पतली सी विरक्त लंगोटी कसे हुए और इसके सिवा जैसे उन्हें किसी प्रकार के वस्त्र की आवश्यकता ही नहीं थी.शायद इसीलिए लोग इस संत को लंगटा बाबा के नाम से जानते थे। ब्रह्मलीन हो जाने के बाद उस परम हंस का स्मरण दिलाता है उसी स्थान पर निर्मित समाधि पीठ जहाँ पौष मास की पूर्णिमा को अपार जनसमूह श्रद्धांजलि अर्पित करने टूट पड़ता है। जहाँ जातीय एवं साम्प्रदायिकता का दायरा विशीर्ण हो जाता है। पंडित और मौलवी समान रूप से एक ही जगह बैठकर पूजा अर्चना करते हैं.हिन्दू हो या मुस्लिम सभी यहाँ सिर्फ मनुष्य होकर रह जाते हैं. साथ ही साथ चादर तथा अन्य उपहार समर्पित करती है.
जिन्हे विश्वास न हो जाकर अपनी आँखों से देख सकते हैं सबके लिए खुला है वह द्वार। न वह मंदिर है न मस्जिद न गिरिजाघर न गुरुद्वारा।आप चाहें जो नाम दे दें स्वीकार है उस पुनीत समाधि को. जहाँ दबी है शीतल राख पंचभूतों की ,एक प्रकट रहस्यमय संरचना की इतिश्री।
उसरी नदी का लघु सेतु मानो आते -जाते लोगों के लिए संसार की मूक दार्शनिकता का सचेतक सा निर्निमेष छोटे -छोटे गड्ढो से उलीच कर जल भरने वाली पनिहारिनों को देखता रहता है। पश्चिमी तट पर स्थित पथ निर्देशक पाषाण स्तम्भ मानो त्रिकोणात्मक विश्व पथ का रहस्यात्मक प्रतिबिम्ब सा रामानुज दर्शन के प्रतीक सा नए राहगीरों को कुछ क्षण रोक कर योग्यता अनुसार निर्देश देता हुआ अविचल खड़ा है. आश्रम के द्वार पर हलवाइयों की मधुर कलकल झुण्ड के झुण्ड मिष्टान्न रस लोलुप भौंरों की झंकार ग्राहकों को सचेत करता सा प्रतीत होता है. जाति विहीन आश्रम में छोटे छोटे बालक अमरुद के पेड़ों पर झूलते हुए वानरों का भ्रम पैदा करें तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
स्थानीय और दूर-दराज के प्रेमी भक्त पहले पब्लिक बस की धक्कम -धुक्की तथा डाक ढोने वाली स्टेट बस की उखड़ी पटरी पर कपड़े फटने और काँटी चुभने के बचने के लिए अकसर पैदल ही समाधि स्थल पर फूल और चादर चढाने आते थे अब तो साधनों की भरमार है.
हमने सुना है की यहाँ पहले राजाओं का गढ़ था जिनका मुस्लिम शासकों के साथ मुकाबला हुआ था. मेरा अनुमान है की कबीर ने अपने ज़माने में जो समन्वय प्रस्तुत किया था ,गोस्वामी तुलसी दास के मानस ने जो शीतल सरिता प्रवाहित की थी सम्भवतः लंगटा बाबा की इह लीला का निदर्शन आज उनकी समाधि के रूप में हमारे सामने सत्ता लोलुप मानव जाति की संकीर्ण मनोवृति पर मूक अट्टहास कर रहा है।
मनुपुत्रों का विभाजन कौन करता है?,जाति ,रंग बल ,धन ,देश ,मान ,मर्यादा ,रीति संस्कार ,शिक्षा क्या है ?वह जो हमे हमसे अलग करता है। हम देखते हैं लोग कुत्ते पालते हैं। भेड़ ,बकरी ,मुर्गी,गाय भैंस ऊंट घोड़े बिल्ली,पक्षी ,सांप बिच्छू ,बाघ भालू ,बन्दर आदि खूंखार हिंसक घातक पशुओं को बड़े प्रेम से पालते हैं ,नहलाते हैं ,भोजन पानी की व्यवस्था करते हैं। उनकी सुख सुविधा के लिए स्वयं पसीना बहाते हैं। आप कहेंगे की ये सब आर्थिक सुख सुविधा के लिए करते हैं. बात ठीक है जब ऐसे हिंसक पशु हमारे लिए लाभकारी हो सकते हैं तो फिर मानव मानव के लिए पशुओं से अधिक लाभकारी नहीं हो सकता ?
हर मानव सहमत होगा और इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक ही देगा यह मेरा अखंड विश्वास है। फिर वह कौन सी विषग्रंथि है जो मानव तरुवर की जड़ में बैठी शाखाओं में विैषबीज पैदा करती है ?
मेरी हलकी बुद्धि में एक तथ्य प्रकट होता है ,दो अक्षरों की जगमगाहट निखरती है ,एकार्णव में ब्रह्मा को दो अक्षर सुनाई पड़े तप और उन्होंने तप के द्वारा इस सम्पूर्ण विश्व का सृजन किया। उसके बाद विष्णु को भी सुनाई पड़े रक्ष। शंकर को भी दो अक्षर सुनाई पड़े हर और वे हर हर करते हुए स्वयं हर हो गए ,सोचा मेरी बारी अभी नहीं आयी है तब तक समाधिस्थ हो कुछ और निर्देश प्राप्त करूँ। कुछ दिनों की साधना के उपरांत उन्हें ऐसा महसूस हुआ की हर हल हो गया और विष्णु का सहयोग करने लगे हल रक्ष का सहायक हो गया। यहाँ तक की वे दोनों मिलकर हरिहर हो गए। ब्रह्मा को इस रहस्य की जानकारी है या नहीं मैं नहीं जानता पर मुझे जो दो अक्षर सुनाई पड़े वे कभी उलट पलट जाया करते हैं। ह स तो कभी स ह, मैंने दोनों की संगति बिठाने का प्रयास किया हस सह और दोनों अक्षरों को क्रमशः सजा लिया हससह अब उल्टा पुल्टा एक समानार्थक शब्द बन गया।
संस्कृत व्याकरण की दृष्टि में सह का प्रयोग करने पर कर्ता गौण हो जाता है जिसमे अंग्रेजी ग्रामर के अनुसार की विभक्ति लगती है ,और यही बात संस्कृत व्याकरण के अनुसार भी सही है। इस प्रकार व्याकरण से निर्मित शुद्ध सह शब्द का योग अगर मानव के जीवन में सहयोंग करने लगे तो सहिष्णु, सहयोगी ,सहकर्मी,सहगामी बनकर शिव के पास चले तथा हर से हल पाकर विष्णु के रक्ष पद की रक्षा में तत्पर हो जाय।
लंगटा बाबा की समाधि से यह शब्द यहां आनेवाले भक्तों को सुनाई पड़ता है या नहीं मुझे नहीं पता परन्तु मैं जहाँ तक जा पाता हूँ यह शब्द मेरा पीछा नहीं छोड़ता। मैंने उलटने का प्रयास किया सह को हस करके पीछा छुड़ाने का प्रयास किया परन्तु दोनों ही मेरे पीछे लग गए. मैं सम्पूर्ण विश्व के मानवों से करवद्ध प्रार्थना करता हूँ की सबलोग एकजुट होकर मुझे इस कष्ट से छुटकारा दिलाने का प्रयास करें ,सभी सह को अंगीकार कर हँसते हुए नए युग का निर्माण करें।
भागवत पाठक 'श्यामल '
(आज की संकीर्ण मनोवृति पर मूक अट्टहास)
उत्तरी छोटानागपुर के गिरिडीह जिले एक छोटा सा क़स्बाईनुमा इलाका है खरगडीहा जो उसरी नदी के तट पर बसा हुआ है. वर्षों पूर्व यहाँ एक संत रहते थे मस्तमौला ,सांसारिक प्रपंचो से लापरहवाह। हृष्ट-पुष्ट दिव्य दृढ एवं अमिन सभ्यता की प्रशान्त तेजस्विता से मंडित। बारहो महीने कमर में एक पतली सी विरक्त लंगोटी कसे हुए और इसके सिवा जैसे उन्हें किसी प्रकार के वस्त्र की आवश्यकता ही नहीं थी.शायद इसीलिए लोग इस संत को लंगटा बाबा के नाम से जानते थे। ब्रह्मलीन हो जाने के बाद उस परम हंस का स्मरण दिलाता है उसी स्थान पर निर्मित समाधि पीठ जहाँ पौष मास की पूर्णिमा को अपार जनसमूह श्रद्धांजलि अर्पित करने टूट पड़ता है। जहाँ जातीय एवं साम्प्रदायिकता का दायरा विशीर्ण हो जाता है। पंडित और मौलवी समान रूप से एक ही जगह बैठकर पूजा अर्चना करते हैं.हिन्दू हो या मुस्लिम सभी यहाँ सिर्फ मनुष्य होकर रह जाते हैं. साथ ही साथ चादर तथा अन्य उपहार समर्पित करती है.
जिन्हे विश्वास न हो जाकर अपनी आँखों से देख सकते हैं सबके लिए खुला है वह द्वार। न वह मंदिर है न मस्जिद न गिरिजाघर न गुरुद्वारा।आप चाहें जो नाम दे दें स्वीकार है उस पुनीत समाधि को. जहाँ दबी है शीतल राख पंचभूतों की ,एक प्रकट रहस्यमय संरचना की इतिश्री।
उसरी नदी का लघु सेतु मानो आते -जाते लोगों के लिए संसार की मूक दार्शनिकता का सचेतक सा निर्निमेष छोटे -छोटे गड्ढो से उलीच कर जल भरने वाली पनिहारिनों को देखता रहता है। पश्चिमी तट पर स्थित पथ निर्देशक पाषाण स्तम्भ मानो त्रिकोणात्मक विश्व पथ का रहस्यात्मक प्रतिबिम्ब सा रामानुज दर्शन के प्रतीक सा नए राहगीरों को कुछ क्षण रोक कर योग्यता अनुसार निर्देश देता हुआ अविचल खड़ा है. आश्रम के द्वार पर हलवाइयों की मधुर कलकल झुण्ड के झुण्ड मिष्टान्न रस लोलुप भौंरों की झंकार ग्राहकों को सचेत करता सा प्रतीत होता है. जाति विहीन आश्रम में छोटे छोटे बालक अमरुद के पेड़ों पर झूलते हुए वानरों का भ्रम पैदा करें तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
स्थानीय और दूर-दराज के प्रेमी भक्त पहले पब्लिक बस की धक्कम -धुक्की तथा डाक ढोने वाली स्टेट बस की उखड़ी पटरी पर कपड़े फटने और काँटी चुभने के बचने के लिए अकसर पैदल ही समाधि स्थल पर फूल और चादर चढाने आते थे अब तो साधनों की भरमार है.
हमने सुना है की यहाँ पहले राजाओं का गढ़ था जिनका मुस्लिम शासकों के साथ मुकाबला हुआ था. मेरा अनुमान है की कबीर ने अपने ज़माने में जो समन्वय प्रस्तुत किया था ,गोस्वामी तुलसी दास के मानस ने जो शीतल सरिता प्रवाहित की थी सम्भवतः लंगटा बाबा की इह लीला का निदर्शन आज उनकी समाधि के रूप में हमारे सामने सत्ता लोलुप मानव जाति की संकीर्ण मनोवृति पर मूक अट्टहास कर रहा है।
मनुपुत्रों का विभाजन कौन करता है?,जाति ,रंग बल ,धन ,देश ,मान ,मर्यादा ,रीति संस्कार ,शिक्षा क्या है ?वह जो हमे हमसे अलग करता है। हम देखते हैं लोग कुत्ते पालते हैं। भेड़ ,बकरी ,मुर्गी,गाय भैंस ऊंट घोड़े बिल्ली,पक्षी ,सांप बिच्छू ,बाघ भालू ,बन्दर आदि खूंखार हिंसक घातक पशुओं को बड़े प्रेम से पालते हैं ,नहलाते हैं ,भोजन पानी की व्यवस्था करते हैं। उनकी सुख सुविधा के लिए स्वयं पसीना बहाते हैं। आप कहेंगे की ये सब आर्थिक सुख सुविधा के लिए करते हैं. बात ठीक है जब ऐसे हिंसक पशु हमारे लिए लाभकारी हो सकते हैं तो फिर मानव मानव के लिए पशुओं से अधिक लाभकारी नहीं हो सकता ?
हर मानव सहमत होगा और इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक ही देगा यह मेरा अखंड विश्वास है। फिर वह कौन सी विषग्रंथि है जो मानव तरुवर की जड़ में बैठी शाखाओं में विैषबीज पैदा करती है ?
मेरी हलकी बुद्धि में एक तथ्य प्रकट होता है ,दो अक्षरों की जगमगाहट निखरती है ,एकार्णव में ब्रह्मा को दो अक्षर सुनाई पड़े तप और उन्होंने तप के द्वारा इस सम्पूर्ण विश्व का सृजन किया। उसके बाद विष्णु को भी सुनाई पड़े रक्ष। शंकर को भी दो अक्षर सुनाई पड़े हर और वे हर हर करते हुए स्वयं हर हो गए ,सोचा मेरी बारी अभी नहीं आयी है तब तक समाधिस्थ हो कुछ और निर्देश प्राप्त करूँ। कुछ दिनों की साधना के उपरांत उन्हें ऐसा महसूस हुआ की हर हल हो गया और विष्णु का सहयोग करने लगे हल रक्ष का सहायक हो गया। यहाँ तक की वे दोनों मिलकर हरिहर हो गए। ब्रह्मा को इस रहस्य की जानकारी है या नहीं मैं नहीं जानता पर मुझे जो दो अक्षर सुनाई पड़े वे कभी उलट पलट जाया करते हैं। ह स तो कभी स ह, मैंने दोनों की संगति बिठाने का प्रयास किया हस सह और दोनों अक्षरों को क्रमशः सजा लिया हससह अब उल्टा पुल्टा एक समानार्थक शब्द बन गया।
संस्कृत व्याकरण की दृष्टि में सह का प्रयोग करने पर कर्ता गौण हो जाता है जिसमे अंग्रेजी ग्रामर के अनुसार की विभक्ति लगती है ,और यही बात संस्कृत व्याकरण के अनुसार भी सही है। इस प्रकार व्याकरण से निर्मित शुद्ध सह शब्द का योग अगर मानव के जीवन में सहयोंग करने लगे तो सहिष्णु, सहयोगी ,सहकर्मी,सहगामी बनकर शिव के पास चले तथा हर से हल पाकर विष्णु के रक्ष पद की रक्षा में तत्पर हो जाय।
लंगटा बाबा की समाधि से यह शब्द यहां आनेवाले भक्तों को सुनाई पड़ता है या नहीं मुझे नहीं पता परन्तु मैं जहाँ तक जा पाता हूँ यह शब्द मेरा पीछा नहीं छोड़ता। मैंने उलटने का प्रयास किया सह को हस करके पीछा छुड़ाने का प्रयास किया परन्तु दोनों ही मेरे पीछे लग गए. मैं सम्पूर्ण विश्व के मानवों से करवद्ध प्रार्थना करता हूँ की सबलोग एकजुट होकर मुझे इस कष्ट से छुटकारा दिलाने का प्रयास करें ,सभी सह को अंगीकार कर हँसते हुए नए युग का निर्माण करें।
भागवत पाठक 'श्यामल '
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